पश्चिम चंपारण को ऋषि मुनियों की सर ज़मीन कही जाए तो गलत नहीं होगा। पश्चिम चंपारण की धरती पर ऋषि मुनि, सूफी संत आदि इस सर जमीन से ताल्लुक रखते हैं, हमारे यहां कई ऐतिहासिक प्राचीन धरोहर हैं जिस कारण हमारा नाम पूरी दुनिया में फैला हुआ है बेतिया से करीब 27 किलोमीटर पश्चिम की ओर नंदनगढ़ में दक्षिण की ओर भगवान बुद्ध का एक बड़ा सा स्तुप है.
कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र जिनका बचपन में सिद्धार्थ नाम था। उनकी माता का नाम महामाया था। यही सिद्धार्थ आगे चलकर भगवान बुद्ध के नाम से जाने गये, जिन के अनुयाई पूरी दुनिया में बसते हैं।
भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा थी, 563 ईसा पूर्व बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी वन में हुआ था, तथा इनका परिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशी नगर में 80 वर्ष की आयु में हुआ था,भगवान बुद्ध 29 साल की उम्र में अपनी पत्नी यशोधरा एवं पिता शुद्धोधन से विदा ले कर सत्य की खोज में घर से निकलते है जो पहली बार गोनहा प्रखंड के रमपुरवा में अनोमा नदी पार कर जो आज चंपारण में हड़ बोड़ा नदी के नाम से जाना जाता है वहां अपनी पोशाक़ एवं आभूषण उतार कर और अपने सर का बाल मुंडवा कर सन्यासी वेश धारण कर राजगीर की ओर चल पड़े...
लौरिया नंदनगढ़ की इतिहास
नंदनगढ़ लौरिया में स्थित बड़ा सा स्तूप है जो चौथी शताब्दी ईसा पूर्व अशोक से शासन काल के 21वें वर्ष बनाया गया था [1] .
वास्तव में भगवान बुद्ध की पूरी अस्थियों का स्तूप नहीं है क्योंकि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद इनके 8 अनुयाई राजाओं ने इनकी अस्थि को अपने यहां ले जाने के लिए आपस में बांट लिए जिसमें वैशाली के लिछवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप के बुल्ली, राम गांम के कोलिय वेछ द्वीप के ब्राह्मय, कूशी नारा के मलय, पावापुरी के मलय, द्रोण ब्राह्मण, इन 8 राजाओं ने उनकी परिनिर्वाण की अस्थि कलश अपने यहां ले जाकर स्थापित किया परंतु नंदनगढ़ में जो अग्नि अवशेष बचे उसे यहां लाकर स्थापित किया गया, इसीलिए यह स्तूप नंदनगढ़ में आज भी एक दर्शनीय स्थल है, ठीक इसके उत्तर ओर करीब 2 किलोमीटर के फासले पर अशोक स्तंभ स्थित है जो सम्राट अशोक ने बुद्ध की यादगार के लिए यहां पर एक बड़ा सा स्तभ लगवाया है जिस पर पाली भाषा में बहुत सारी बातें लिखी हैं पाली भाषा के ठीक नीचे अरबी लिपि में मोहीउद्दीन मोहम्मद, औरंगजेब बादशाह आलमगीर गाजी 1071 ईसवी भी लिखा हुआ है.......
एलेक्जेंडर कनिंघम के रिपोर्ट के मुताबिक यह तारीख़ 1660-61 ईस्वी होती है जो की औरंज़ेब के शासन काल का चौथा वर्ष था और रिकॉर्ड शायद मीर जुमला के सेने में कुछ उत्साही अनुयायियों द्वारा इसे लिखा गया है [2]
यह दर्शनीय स्थल अपने साथ सिर्फ इतिहास ही नहीं कई महत्वपूर्ण यादें एवं उपदेश अपने आप में समेटे हुए है। आज जरूरत है इन पर विशेष ध्यान एवं शोध की....
सन 2001 में एम पी श्री महेंद्र बैठा द्वारा किनारे की गिरती हुई और ख़राब दीवारों की मरम्मत कराइ गई थी. परन्तु वास्तविकता यह है कि इसके चारों ओर काफी गंदगी फैली हुई है । इसकी कोई विशेष देखरेख करने वाला नहीं है
अब हम रमपुरवा बेतिया से उत्तर की ओर गौनाहा निकट रमपुरवा में सम्राट अशोक के दो सबसे बड़े स्तम्भ सुरक्षित रखे हैं, जिसमे प्रत्येक की लम्बाई करीब 45 फ़ीट है, उसके ऊपर सिंह की मूर्ति थी वही दूसरे के ऊपर बैल की, सिंह बाली मूर्ति कलकत्ता के म्युसियम में तो बैल वाली मूर्ति राष्ट्रपति है.
इस सन्दर्भ में यह जानकारी मिली कि
भगवान बुद्ध के सिलसिले में मैंने बेतिया के भोजपुरी साहित्यकार डॉक्टर गोरख प्रसाद मस्ताना से भगवान बुद्ध के सिलसिले में
एक विशेष बात-चीत का अंश
अब पत्रकार एस ए शकील ने और जानकारी प्राप्त करने के लिए रिटायर्ड डीएसपी रामदास बैठा से कई मुलाकातें की श्री रामदास बैठा ने हमें बुद्ध के संदर्भ में बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध कराते हुए उन्होंने यह भी बताया कि सहोदरा मंदिर में बुद्ध की पत्नी हैं, जो अपने हाथ में एक लड़का लिए हैं, वास्तव में यह भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा एवं उनके गोद में बच्चा भगवान बुद्ध का बेटा राहुल है जो बाद में सहोदरा और अब सुभद्रा माता के नाम से प्रचलित है ।यह मंदिर काफी प्राचीन है एवं आस्था का प्रतीक है यहां दर्शन के लिए काफी दूर से लोग आते हैं।
श्री रामदास बैठा के द्वारा यह विशेष जानकारी मिली के भगवान बुद्ध की पैदाइश वैशाख पूर्णिमा को शाल के पेड़ के नीचे हुई एवं इन्हें सत्य का ज्ञान बोधगया में पीपल के पेड़ के नीचे प्राप्त हुआ इन्होंने सारनाथ में पहला उपदेश एक पेड़ के नीचे ही दिया अपने मृत्यु की सूचना अपने साथियों को 3 माह पूर्व ही दे दी थी कि रात के तीसरे पहर बैसाख पूर्णिमा को सुबह मेरा परिनिर्वाण हो जाएगा भगवान बुद्ध ने परिनिर्वाण से पहले यह उपदेश दिया कि "सब्ब पापस्य अकरण, कुशलस्य उप संपदा सचीत परियो दपन, एक बुद्धान शासनम।"
अर्थात सभी प्रकार के पाप कर्म को नहीं करना तथा सभी प्रकार के कुशल कर्म को करके संपत्ति की तरह इकट्ठा करना, अपने चित्त अर्थात अपने मन को परिशुद्ध अर्थात साफ करना यही भगवान बुद्ध का उपदेश है यह थे भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के समय के अंतिम उपदेश कोई भी मनुष्य सिर्फ इन उपदेशों पर चले तो उसके जीवन में हमेशा प्रकाश ही प्रकाश होगा.
भग्वान बुद्ध सत्य की तलाश के लिए चिंतित थे, तथा इस चिंता से निजात पाने के लिए भगवान बुद्ध सत्य की तलाश में निकल पड़े, क्योकि इंसानियत हर जगह परीशान और बेचैन दिखाई दे रही थी.
छः वर्षो की तपस्या के बाद बोध गया में एक पीपल के पेड़ के नीचे विपश्यना के द्वारा इन्हे ज्ञान ज्ञान प्राप्त हो जाता है अब इसकी चर्चा पूरे राज्य में हो जाती है... तब भगवान बुद्ध , कार्तिक अमावस्या को अपने पिता राजा शुद्दोधन के बुलाए जाने पर कपिलवस्तु में वापस आते हैं इसी दिन कपिलवस्तु के लोगों ने पूरे कपिलवस्तु को चिरागों से रौशन कर दिया जिसे दीपदान उत्सव कहते हैं जिसे हम दीपावली कहते हैं जिसे भगवान बुद्ध के उपदेशों में आनंद को भगवान बुद्ध ने यह बताया कि "जो मैंने विनय और अनुशासन हमने लिखवाया है वही तुम्हारे सास्ता होगे " आनंद को यह चिंता सता रही थी कि अब सास्ता(मार्ग दर्शक) कौन होगा भगवान बुद्ध ने आनंद को यह आश्वस्त कराया कि " यह संस्कार अनित्य है "यह दुनिया बदलते रहने वाली है इसलिए अपने मकसद में लगे रहो " " यह संस्कार अनित्य है इसलिए, अप्रमाद पूर्वक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहो " भगवान बुद्ध की पैदाइश भी लुम्बिनी के जंगल में पेड़ के नीचे हुई जब इनकी माता महामाया अपनी पहली औलाद को जनने के लिए कपिलवस्तु से अपनी मायके जा रही थी कि बुद्ध का जन्म हुआ जन्म के एक सफ्ताह बाद माता श्री अपने भगवान से जा मिलीं, इनकी खाला प्रजापति ने इन्हीं की परवरिश की हमारे शहर में भगवान बुद्ध के जानकार श्री रामदास बैठाने मुझे यह बताया की राजा पुष्यमित्र शुंग के समय से बौद्धों को मिटाने की साज़िश चल पड़ी। उन्होंने आगे बताया कि भिखना ठोरी भीखू के ठहरने की जगह थी एवं यशोधरा माता की मंदिर वास्तव में बुद्ध की पत्नी यशोधरा एवं उनकी गोद में बुद्ध का बेटा राहुल है जो आज करीब पाँच छः वर्षो से सहोदरा मंदिर को सुभद्रा मंदिर के रूप में रूप मेंप्रचारित किया जा रहा है, उस मंदिर के पीछे कुएं में एवं उसके इर्द-गिर्द पत्थरों पर बुद्ध के समय की लिपि अभी भी सुरक्षित है।
Post Credit :
[1] O’ Malley, ‘Bengal District Gazetteers: CHAMPARAN’, 16.[2] ASI, Four Reports made during the Years 1862-65, 73.
अफ़रोज़ आलम साहिल (Afroz Alam Sahil) पत्रकार के लेख से
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